26 साल का इंतजार और मेहनतकशों के हक में मोहन सरकार

 26 साल का इंतजार और मेहनतकशों के हक में मोहन सरकार

मनोज कुमार



कैलेंडर में दर्ज तारीख के हिसाब से हर साल एक मई को दुनिया के साथ हम लोग भी मई दिवस मनाते हैं. मजदूरों के हक-हूकुक की बातें करते हैं और इस दिन के साथ बिसरा देते हैं लेकिन मध्यप्रदेश मई दिवस के लिए 1 मई का इंतजार नहीं करेगा बल्कि हर साल सेलिबे्रट करेगा 25 दिसम्बर को. मोहन सरकार के एक फैसले ने ना केवल मई दिवस की तारीख का अर्थ ही बदल दिया बल्कि हजारों मजदूरों की आँखों से आँसू पोंछ लिए. हजारों मजदूर, 224 करोड़ रुपये और 26 सालों का लम्बा इंतजार. इन सालों में 26 बार मई दिवस आता-जाता रहा लेकिन आने-जाने वाली सरकारों के लिए यह एक आम मुद्दा था. न्याय के लिए बरसों से इंतजार करते करते अनेक मजदूरों की जीवनलीला खत्म हो गई. परिवार तंगहाली और बदहाली में जीता रहा. यहां-वहां से लेकर अदालत के दरवाजे तक इन मजदूरों ने गुहार लगायी लेकिन मामला सिफर रहा. सब कुछ हो रहा था लेकिन नहीं हुआ तो मजदूरों के हक में फैसला. करीब-करीब डेढ़ वर्ष पहले मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का परिवर्तन होता है और शिवराजसिंह चौहान के स्थान पर डॉ. मोहन यादव नए मुख्यमंत्री बनते हैं. कभी शिवराजसिंह चौहान मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री का प्रभार सम्हालने वाले डॉ. यादव से भी कोई बड़ी उम्मीद सालों से अपनी मजदूरी पाने के लिए लड़ते मजदूरों को नहीं थी. लेकिन समय का लेखा कौन जानता है. मुुख्यमंत्री डॉ. यादव ने अचानक से फैसला लिया और 26 सालों से अटकी उनकी मजदूरी का फैसला चंद मिनटों में कर दिया. डॉ. यादव के इस फैसले ने मोहन सरकार के प्रति लोगों में विश्वास का भाग जगा दिया. इसी के साथ 25 दिसम्बर, 2023 एक अमिट तारीख के रूप में मध्यप्रदेश के कैलेंडर में दर्ज हो गया है. मामला मालवा की कभी शान और इंदौर की पहचान रही हुकमचंद कपड़ा मिल के बंद हो जाने के बाद बेकार और बेबस हुए मजदूरों का है. साल-दर-साल गुजरता रहा और सब कुछ स्याह अंधेरे में कैद रहा. अदालत ने आदेश दिया कि हुकमचंद कपड़ा मिल के मालिकाना हक की जमीन को बेच कर मजदूरों की मजदूरी का भुगतान किया जाए. अनेक कोशिशों के बाद भी जमीन कौड़ी के मोल पड़ी रही. कोई खरीददार सामने नहीं आया और ना ही पूर्ववर्ती सरकारों ने कोई ठोस फैसला लिया. निराशा में डूबते-उतरते हजारों मजदूरों को लग रहा था कि अब उन्हें न्याय नहीं मिलने वाला लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मोहन सरकार ने फैसला लिया और चंद मिनटों में सभी मजदूरों को उनका बकाया मजदूरी, ग्रेज्युटी और दीगर भुगतान देेने का रास्ता साफ कर दिया.

मोहन सरकार का यह फैसला चौंकाने वाला था लेकिन था जनहित का फैसला. मालवा की तासीर ही कुछ अलग किस्म की है और उज्जैन से आने वाले मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की तासीर भी मालवा की तरह ही है. वे स्वयं एक ऐसे परिवार से आते हैैं जिन्होंने मजदूरों का दर्द देखा है सो मुख्यमंत्री की नजर से नहीं बल्कि मनुष्य की नजर से उन्होंने इस मामले को देखा. देखा और समझा तो उन्होंने पहले भी था लेकिन मामला उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं था, सो खामोश रहे लेकिन सत्ता की बागडोर सम्हालते ही किसी और के अप्रोच किए बिना ही स्वयं संज्ञान लेकर मजदूरों की झोली में खुशी का फैसला डाल दिया. मोहन सरकार के इस फैसले से जैसे मालवा और खासतौर पर इंदौर झूूम उठा. इंदौर का मस्तिष्क शान से और गर्व से भर उठा. 

26 साल पहले हुकमचंद मिल बंद हुई थी। इसके बाद से मिल के पांच हजार से ज्यादा मजदूर वेतन, ग्रेच्युटी और अन्य लेनदारियों के लिए भटक रहे हैं। कोर्ट ने मिल की जमीन बेचकर मजदूरों का भुगतान करने का आदेश दिया था। कई बार नीलामी निकालने के बावजूद जमीन नहीं बिकी। हुकमचंद कपड़ा मिल के मामले में मोहन सरकार का यह फैसला दूरदर्शी था. अदालत के आदेश के बाद भी हुकमचंद कपड़ा मिल की जमीन ना बिक पाने पर उन्होंने सरकार के हक में लेकर नगर निगम इंदौर को सौंप दिया. अब इस जमीन पर आवासीय और व्यवसायिक गतिविधियां शुरू हो रही है. मध्यप्रदेश गृह निर्माण मंडल को यह जमीन सौंप कर जिम्मेदारी दी गई है कि आवासीय और व्यवसायिक गतिविधियां शुरू की जाए.  सरकार ने मिल की जमीन का लैंड यूज औद्योगिक से बदलकर वाणिज्यिक और आवासीय कर दिया है। मिल की कुल जमीन में से 10.768 हेक्टेयर जमीन का लैंड यूज वाणिज्यिक और 6.752 हेक्टेयर जमीन का लैंड यूज आवासीय किया गया है। 

मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने निर्देश दिए कि मध्यप्रदेश में जिन अन्य मिलों की देनदारियां शेष हैं, उन मिलों के प्रकरणों का निराकरण भी हुकुमचंद मिल के मॉडल के आधार पर कर मजदूरों को राहत दी जाए. यह एक सत्ताधीश का फैसला नहीं है औ ना ही इसे राजनीतिक चश्मे से देखा जाना चाहिए। यह एक मनुष्य का मनुष्य के लिए लिया गया फैसला है जिसे मानव कल्याण के रूप में देखा और समझा जाना चाहिए. जैसा कि डॉ. मोहन यादव के निर्देश हैं कि अन्य मिलों की देनदारियों को इसे ही मॉडल मानकर निपटारा किया जाए तो यह फैसले मध्यप्रदेश का ऐतिहासिक फैसला माना जाएगा.

एक समय था जब बड़े मजदूर संगठन हुआ करते थे. मजदूरों के हक के लिए वे सडक़ों पर उतर आते थे. कई बार उनकी मांगों को मान लिया जाता था तो कई बार ठुकरा दिया जाता था. धीरे-धीरे श्रमिक संगठन विलुप्त होते गए. मजदूर खुद के हक की लड़ाई खुद ही लड़ते रहे. मई दिवस का ताप समाप्त होता रहा और शायद यही कारण है कि 26 सालों से हुकुमचंद मिल के मजदूरों को उनका हक नहीं मिल पाया था. अभी और भी ऐसे मिल शेष हैं जिनके मामले निपटाया जाना है. अब श्रमिक संगठन कागज पर हैं और वे जमीन पर होते तो शायद हुकुमचंद मिल के श्रमिकों को 26 साल का इंतजार नहीं करना होता. खैर, अब मध्यप्रदेश के मेहनतकशों को श्रमिक संगठनों की जरूरत नहीं पड़ेगी जब सरकार ही उनके हक में फैसला ले रही है. शायद 1956 में मध्यप्रदेश की स्थापना के बाद मेहनतकशों के हक में ऐसा फैसला पहली बार किसी ने लिया है तो इसके लिए मोहन सरकार के हक में जाता है. मध्यप्रदेश अब गर्व से मई दिवस सेलिबे्रट करेगा. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं)

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