गोवत्स द्वादशी पर क्यों होती है गाय-बछड़े की पूजा
गोवत्स द्वादशी पर क्यों होती है गाय-बछड़े की पूजा
कार्तिक मास को अत्यंत पवित्र माना जाता है. भगवान विष्णु के प्रिय इस मास का हर दिन एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है. इन्हीं उत्सवों में से एक है गोवत्स द्वादशी, जिसका उल्लेख भविष्य पुराण में भी मिलता है.
भविष्य पुराण उत्तरपर्व अध्याय क्रमांक 69, के अनुसार एक बार महाराज युधिष्ठिर भगवान कृष्ण से दुखी होकर कहते हैं " भगवन् ! मेरे राज्य की प्राप्ति के लिये अट्ठारह अक्षौहिणी सेनाएं नष्ट हुई हैं, इस पापसे मेरे चित्त में बहुत घृणा उत्पन्न हो गयी है. उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र आदि सभी मारे गये हैं. भीष्म, द्रोण, कलिंगराज, कर्ण, शल्य, दुर्योधन आदि के मरने से मेरे हृदय में महान् क्लेश है. हे जगत्पते! इन पापों से छुटकारा पाने के लिये किसी धर्म का आप वर्णन करें.
भगवान श्रीकृष्ण बोले- "गोवत्स द्वादशी नाम का व्रत पुण्य प्रदान करने वाला है."
युधिष्ठिर के यह पूछने पर कि गोवत्स द्वादशी कौन-सा व्रत है और इसके करने का क्या विधान है ? इसकी कब और कैसे उत्पत्ति हुई है. श्रीकृष्ण बोले कि सत्ययुग में पुण्यशाली जम्बूमार्ग (भड़ौच) में नामव्रतधरा नामक पर्वत के टंटावि नामक शिखर पर भगवान शंकर के दर्शन करने की इच्छा से सभी ऋषि तपस्या कर रहे थे. वहां महर्षि भृगु का आश्रम भी था. विविध मृगगण और बंदरों से समन्वित था. उन मुनियों को दर्शन देने के व्याज से भगवान शंकर ने एक वृद्ध ब्राह्मण का वेश धरा.
दुबले और कमजोर देह वाले ब्राह्मण कांपते हाथ में डंडा लिये वहां आये. पार्वती भी सुन्दर सवत्सा गौका रूप धारणकर वहाँ आयी. क्षीरसागर के मन्थन के समय अमृत के साथ पांच गाय उत्पन्न हुईं-नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला तथा बहुला. इन्हें लोकमाता कहा गया है क्योंकि ये लोक सेवा तथा देवताओं की तृप्ति के लिये इनकी उतपति हुई है. देवताओं ने इन पांच गौओं को महर्षि जमदग्नि, भरद्वाज, वसिष्ठ, असित तथा गौतम मुनि को प्रदान किया था.
गौओं के छः अङ्ग-गोबर, मूत्र, दुग्ध, दधि और घृत - ये अत्यन्त पवित्र और शुद्धिके साधन भी हैं. गोबर से बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ, उसमें लक्ष्मी विद्यमान हैं, इसीलिये इसे श्री वृक्ष कहा जाता है. गोबर से ही कमलब के बीज उत्पन्न हुए हैं. गोमूत्र से गुग्गुल की उत्पत्ति हुई है, जो देखने में प्रिय और सुगन्धियुक्त है जो सभी देवों का आहार है. संसार में मूलभूत गोदुग्ध से उत्पन्न हैं. सभी मांगलिक पदार्थ दही से उत्पन्न हैं. घी से अमृत उत्पन्न होता है, जो देवों की तृप्ति का साधन है. गाय से ही यज्ञ प्रवृत्त होता है.
गोषु यज्ञाः प्रवर्तन्ते गोषु देवाः प्रतिष्ठिताः । गोषु वेदाः समुत्कीर्णाः सपडङ्गपदक्रमाः ॥ (भविष्य पुराण उत्तरपर्व 69.24)
अर्थात - गाय में ही छः अंग सहित सम्पूर्ण वेद समाहित हैं.
गौओं के सींग की जड़ में ब्रह्मा और विष्णु प्रतिष्ठित हैं.
शृंग के अग्र भाग में सभी चराचर एवं समस्त तीर्थ प्रतिष्ठित हैं.
सभी कारणों के कारणस्वरूप महादेव शिव मध्य में प्रतिष्ठित हैं.
गौ के ललाट में गौरी, नासिका में कार्तिकेय, नासिका के दोनों पुटों में कम्बल तथा अश्वतर ये दो नाग प्रतिष्ठित हैं.
दोनों कानों में अश्विनी कुमार, नेत्रों में चन्द्र और सूर्य, दाँतों में आठों वसुगण.
जिह्वा में वरुण, कुहर में सरस्वती, गण्डस्थलों में यम और यक्ष, ओठों में दोनों संध्याएं
ग्रीवा में इन्द्र, मौर में राक्षस, पाणि-भाग में द्यौ और जंघाओं में चारों चरणों से धर्म सदा विराजमान रहता है.
खुरों के मध्य में गन्धर्व, अग्र भाग में सर्प एवं पश्चिम भाग में राक्षस गण प्रतिष्ठित हैं.
गौ के पृष्ठदेश में एकादश रुद्र, सभी संधियों में वरुण, कमर में पितर, कपोलों में मानव तथा अपान में स्वाहारूप अलंकार को आश्रित कर श्री अवस्थित हैं.
गोमूत्र में साक्षात् गंगा और गोमय में यमुना स्थित हैं. रोम समूह में तैंतीस करोड़ देवगण प्रतिष्ठित हैं.
पेट में पर्वत और जंगलों के साथ पृथ्वी अवस्थित है. चारों पयोधरों में चारों महासमुद्र स्थित हैं.
क्षीरधाराओं में मेघ, वृष्टि एवं जलविन्दु हैं, जठर में गार्हपत्य अग्नि, हृदय में दक्षिणाग्रि, कण्ठमें आहवनीयानि और तालु सभ्याग्नि स्थित है.
गौओं की अस्थियों में पर्वत और मज्जाओं में यज्ञ स्थित है.
सभी वेद भी गौओं में प्रतिष्ठित हैं. भगवती उमा ने उन सुरभियों के रूप का स्मरणकर अपना भी रूप वैसा ही बना लिया. छः स्थानों से उन्नत, भगवान शंकर प्रसन्नचित्त होकर चरा रहे थे. धीरे- धीरे वे उस आश्रम में गये और कुलपति भृगु के पास जाकर उन्होंने उस गाय को दो दिन तक उसकी सुरक्षा के लिये उन्हें दे दिया और कहा - 'मुने! मैं यहां स्नान कर जम्बू क्षेत्र में जाऊंगा और दो दिन बाद लौंटूंगा, तब तक आप इस गाय की रक्षा करें.
मुनि ने भी उस गौकी सभी प्रकार से रक्षा करने की स्वीकृति दी. भगवान शिव वहीं अंतर्ध्यान हो गये और फिर थोड़ी देर बाद वे एक व्याघ्र- रूपमें प्रकट हो गये तथा बछड़े सहित गौ को डराने लगे. ऋषिगण भी व्याघ्र के भय से आक्रान्त हो आर्तनाद करने लगे और यथासम्भव व्याघ्र को हटाने के प्रयास करने लगे. व्याघ्रके भय से सवत्सा गौ भी कूद- कूदकर रंभाने लगी. व्याघ्रके भयसे डरी हुई गौ के भागने पर चारों खुरों का चिह्न शिला-मध्य में पड़ गया.
आकाश में देवताओं एवं किन्नरों ने व्याघ्र (भगवान शंकर) और सवत्सा गौ (माता पार्वती) की वन्दना की. शिला का वह चिह्न आज भी स्पष्ट दीखता है. वह नर्मदाजी का पावन तीर्थ है. यहाँ शम्भुतीर्थ के शिवलिङ्ग का जो स्पर्श करता है, वह गोहत्यासे मुक्त हो जाता है. जम्बूमार्ग में स्थित उस महातीर्थ में स्नान कर ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्ति मिल जाती है. जब व्याघ्र से सवत्सा गौ भयभीत हो रही थी, तब मुनियों ने क्रुद्ध होकर ब्रह्मा से प्राप्त भयंकर शब्द करने वाले घंटे को बजाना प्रारम्भ किया.
उस आवाज़ से व्याघ्र भी सवत्सा गौ को छोड़कर चला गया. ब्राह्मणों ने उसका नाम रखा ढुण्ढागिरि. जो मानव उसका दर्शन करते हैं, वे रुद्रस्वरूप हो जाते हैं. कुछ ही क्षणों में भगवान शंकर व्याघ्र रूप को छोड़कर वहां साक्षात् प्रकट हो गये. वे वृषभ पर आरूढ़ थे, भगवती उमा उनके वाम भाग में विराजमान थीं तथा विनायक, कार्तिकेय के साथ नन्दी, महाकाल, शृङ्गी, वीरभद्रा, चामुण्डा, घण्टाकर्णा आदि से परिवृत और मातृ का, भूत समूह, यक्ष, देव, दानव, गन्धर्व, मुनि, सनकादि भी उनकी पूजा कर रहे थे.
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष (मतान्तरसे कृष्ण पक्ष ) की द्वादशी तिथिमें सवत्सा गोरूपधारिणी उमादेवी की नन्दिनी नाम से पूजा की थी, इसीलिये इस दिन गोवत्स द्वादशी व्रत किया जाता है. राजा उत्तानपादने जिस प्रकार इस व्रत को पृथ्वी पर प्रचारित किया उसे आप सुनें-
उत्तानपाद नामक एक क्षत्रिय राजा थे. जिनकी सुरुचि और शुत्री (सुनीति) नामकी दो रानियाँ थीं. सुनीति से ध्रुव नामका पुत्र हुआ. सुनीति ने अपने उस पुत्र को सुरुचि को सौंप दिया और कहा - 'हे सखि ! तुम इसकी रक्षा करो। मैं सदा स्वयं सेवा में तत्पर रहूंगी.' सुरुचि सदा गृहकार्य संभालती और पतिव्रता सुनीति सदा पतिकी सेवा करती थी. सपत्नी-द्वेष के कारण किसी समय क्रोध और मत्सर्य से सुरुचि ने सुनीति के शिशु को मार डाला, किंतु वह तत्क्षण ही जीवित होकर हंसता हुआ मां की गोदमें स्थित हो गया. इसी प्रकार सुरुचि ने कई बार यह कुकृत्य किया, किंतु वह बालक बार-बार जीवित हो उठता. उसको जीवित देखकर आश्चर्यचकित सुरुचि ने सुनीति से पूछा की यह कैसी विचित्र घटना है और यह किस व्रत का फल है, तुमने किस हवन या व्रतका अनुष्ठान किया है ? जिससे तुम्हारा पुत्र बार-बार जीवित हो जाता है.
सुनीति ने कहा- उसने कार्तिक मासकी द्वादशी के दिन गोवत्स व्रत किया है, उसी के प्रभाव से मेरा पुत्र पुनः पुनः जीवित हो जाता है. जब- जब मैं उसका स्मरण करती हूं, वह मेरे पास ही आ जाता है. प्रवास में रहने पर भी इस व्रत के प्रभाव से पुत्र प्राप्त हो जाता है. इस गोवत्स द्वादशी- व्रत के करने से हे सुरुचि ! तुम्हें भी सब कुछ प्राप्त हो जायगा. सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सुरुचि को उसके पति उत्तानपाद के साथ प्रतिष्ठित कर दिया और आज भी वह आनन्दित हो रही.
युधिष्ठिरने कहा- हे भगवन् ! इस व्रतकी विधि भी बतायें.
भगवान् श्रीकृष्ण बोले की कार्तिक मासमें शुक्ल पक्ष द्वादशी को जलाशयमें स्नान कर पुरुष या स्तएक समय ही भोजन करे. अनन्तर मध्याह्न के समय वत्ससमन्वित गौ की गन्ध, पुष्प, अक्षत, कुंकुम, अलक्तक, दीप, उड़द के बड़े, पुष्पों तथा पुष्प मालाओं द्वारा इस मन्त्र से पूजा करें-
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः । प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नमः स्वाहा ।। (ऋग्वेद 8 । 101 । 15 )
इस प्रकार पूजा कर गौ को ग्रास प्रदान करे और निम्नलिखित मन्त्र से गौ का स्पर्श करते हुए
प्रार्थना एवं क्षमा-याचना करें- ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनन्दिनि। मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरु नन्दिनि ॥ (भाविष्य पुराण उत्तरपर्व 69.85) इस प्रकार गौ की पूजा कर जल से उसका पर्युक्षण करके भक्तिपूर्वक गौ को प्रणाम करें. उस दिन तवा पर पकाया हुआ भोजन न करें और ब्रह्मचर्यपूर्वक पृथ्वी पर शयन करें. इस व्रत के प्रभाव से व्रती सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में गौ के जितने रोयें हैं, उतने वर्षोंतक गो लोक में वास करता है.
कार्तिक द्वादशी को गोवत्स के नाम से जो त्योहार है अगर वह तिथि दोनों दिन प्रदोष व्यापिनी होती है तो प्रथम को लेनी चाहिए,कारण की निर्णयामृत में लिखा है कि, वत्स पूजा ये दोनों में प्रथम दिन करनी है. भविष्यपुराण में लिखा है कि सवत्सा, सुशील, दूध देती गौ को चन्दन लगा कर पुष्प से पूजा करें. तांबे के पात्र में जल अक्षत तिलों सहित अर्ध्य बनाकर गौओं के खुरों में इस भाव से अर्ध्य दे कि, है क्षीरसागर से प्रगट हुई ! हे देवता की पूजित ! हे माता ! इस अर्घ्य को ग्रहण करो, तुम्हें नमस्कार है".
इस दिन तेल में पका भोजन तथा गाय का दूध, दही, घृत, मट्ठा नही खाते. ज्योतिर्निबन्ध में नारद ने कहा है कि, आश्विन के कृष्ण पक्ष में द्वादशी आदि पांच तिथियों में पूर्वरात्र को आरती करना चाहिये, देवता, गौ, घोड़े, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, छोटे, माताको आदि लेकर स्त्रीजनों की आरती करें. यह अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 28 नवंबर 2024 को पड़ रही हैं इस वर्ष.
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